और कोई काम नहीं है क्या तेरा ?
कभी भी आजाती हो बिना बताए
पहले से तो कुछ बताया करो ना की तुम आने वाली हो पर नहीं
आज से मैं कमरे के अंदर से ताला लगा कर रखूंगा तुम आवारा हो गई हो ए " यादें " कभी भी मन हुआ तुम आजाती हो टहलने जैसे मैं कोई सड़क हूँ ।
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं -दुष्यंत कुमार
और कोई काम नहीं है क्या तेरा ?
कभी भी आजाती हो बिना बताए
पहले से तो कुछ बताया करो ना की तुम आने वाली हो पर नहीं
आज से मैं कमरे के अंदर से ताला लगा कर रखूंगा तुम आवारा हो गई हो ए " यादें " कभी भी मन हुआ तुम आजाती हो टहलने जैसे मैं कोई सड़क हूँ ।
रात के बारह बज रहे हैं ,स्ट्रीट लाइट की रौशनी खिड़की से घर में झांक रही है , चाँद भी जाग रही है , तारे भी टिमटिमा रही हैं और मेरा मन भी किसी के एहसासों को ढूंढ़ने में व्यस्त है।
सबको कुछ ना कुछ काम मिल जाता है इस दुनियां में ,काम तो काम होता है और उसे करना ही होता है, ज़िन्दगी का सत्य यही है। मैं भी जो कर रहा हूँ वो काम ही है , अनुभव ही है।
जो काम मैं कर रहा हूँ ये थोड़ा अलग है , मतलब इसमे वो हासिल होता है जिसको आप ना तो बैंक में रख सकते हैं और ना ही अपने पॉकेट के पर्स में । मैं हर रात ये काम को चैन से करता हूँ और बहुत सुकून मिलता है मुझे ।
तकिये से मुँह छुपाना , कान में ईअर फोन लगाना फ़िर कोई एक ही गीत को रिपीट मोड पर सुनना ।
मैं रात को खास कर जगजीत सिंह जी को सुनता हूँ , जब उनकी कोई ग़ज़ल को गाते हैं तो ऐसा लगता है यादें परत दर परत खुल रही हो ,यादों की एलबम की पेज दिमाग में अपने आप पलटने लगती है । यादें जवान होने लगती है ।
तकिये का नींद से झगड़ा हुआ सा नज़र आता है मुझे , हर रात ,क्यूंकि बेचारी पर मैं सर नहीं उसमे मैं मुँह छुपा के सोता हूँ , आँखो से बारिश भी होती हैं ये बात तो बस मेरे तकिये को पता है।
शायद अब तीन बजने वाले हैं पर नींद का कोई अता पता नहीं है
चाँद भी सूरज का इंतजार कर रही है , और मैं नींद का , और नींद में ख़्वाब का , खाव्ब में उसके दीदार का ।
रवि आनंद
मैं दिल , तुम गिटार
आओ छेड़ दो मेरे दिल के तार
तुम गीत , मैं अल्फ़ाज़
आओ एक मुखड़ा गा दो मेरे लिए यार
तुम गजल , मैं कागज
आओ , लिखता हूँ फिर कोई दिल की बात
तुम चाँद ,मैं सूरज
डूब जाता हूँ फिर तेरे लिए आज
तुम ही किताब , तुम ही अक्षर
जुड़ जता हूँ मैं तुझमे पन्ने की तरह ए यार
रवि आनंद
साला ये ज़िन्दगी का क्या प्लान है समझ ही नहीं आ रहा , कुछ तो सही हो जाये मेरे साथ पर नहीं । शक्ल खराब है या किस्मत या दोनो कुछ पता ही नहीं चल पा रहा । कोई भी आ कर प्रवचन दे कर चला जाता है।
दिल में कब्ज ( constipation) की तरह ना जाने कितनी बातें अटकी हुई है पर बाहर नहीं आ रही है , बहुत कुछ कहना होता है जब सुनने वाला कोई नहीं होता , ऐसा क्यों होता है पता नहीं ।
मन टूटा है या दिल कंफ्यूजन में हूँ मैं , शायद मन ही टूटा है , दिल का टूटने में दोनों तरफ से कोई गलती होती है । ऐसा कुछ था नहीं , पर साला लक ने ऐसी की तैसी मार दिया , बस हम ख़्याली पुलाव पकाते रह गये खा कोई और गया ।
रोते रोते दोनो आँखे भी मेरी बोर हो चुकी है , आँखे भी लाल हो कर मुझे गाली देती है मानो कहती हो अबे मुझसे फ्री में कितना काम करवाता है तू ।
इतना तरक़्क़ी कर गया साइंस ,पर कुछ खास उखाड़ नहीं पाया है , अभी तक कोई ऐसा एप्प नहीं बनाया जो यादों के मेमोरी कार्ड को पूरा फॉर्मेंट कर दे । internal memory running out भी हो जाता तो कितना अच्छा था पर पता नहीं इंसान का दिमाग कितने Terabyte का होता है।
साला प्यार वो इंफेक्शन है जो केन्सर से ज्यादा खतरनाक होता है , इसकी कोई chemotherapy नहीं होती । होती तो कितनी अच्छी होती ना , शॉक लगा , लगा कर जला देते ।
पहला चैप्टर हर सब्जेक्ट का आसान होता है ,क्योंकि उसमें कोई ऑब्जेक्ट नहीं दिखता है सबका इंट्रोडक्शन होता है , बाद में पता चलती है, फिर फटती है सबकी । प्यार में भी as it is होता है।
मतलब वही की सफ़र खूबसूरत है मंज़िल से भी ।
ये यादों का कीडे का कोई उपाय नहीं है ये दिन पर दिन इंसान को अंदर से खोखला बनाती है , दारू पी लो या चरस किसी से भी नहीं उतरेगा ।
चेहरे के तासुर से तो बस मुझे वही समझता था जिसका पता तक मुझे अब नहीं मालूम । बाद बाकी लोग मुझे पढ़ने में लगे है लेकिन समझने में कोई नहीं ।
बहुत कुछ बोलना चाहता हूँ पर जो बात मन के भीतर मौन है वो बाहर नहीं आ रही है , वैसे किसके सामने बोलू वो भी एक सवाल है ।
आशिक़ों का उम्मीद कभी खत्म नहीं होता साहेब ,
एक दिन ख्वाब में मिलूँगा उस से सब बातें करूँगा ।
रवि आनंद
आज शाम से फ़िर यादें जवान है ,
हर गीत के अल्फ़ाज़ों में उनको ढूंढना जारी हैं ,
कलम से कागज पर हर एक शब्द में उनकी एहसास को उतारी जा रही है ,
यादों के नूर से घर में रौशनी नज़र आ रही है ,
आंखों के नोर से बारिश की खनक की आवाज सुनाई दे रही है।
रेडियो में बज रही जगजीत सिंह की ग़जल यादों को गर्म कर के दिल में आंच डाल रही है।
ऐसा लग रहा है वो मेरे लिए गा रहें है।
" कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों है ?
वो जो अपना था वही और किसी का क्यों है ?
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों है ?
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों है ? "
ग़जल सिर्फ कोई गीत नहीं होती है , शायर उसे आँखो से निकले मोती की मालों की तरह गुथता है , कैफ़ी आज़मी का शब्दों ने यादों के महफ़िल में चार चाँद लगा दिए हैं।
आज बहुत सारी किताबे भी पढ़ी हर शब्द में उसे ढूंढा वो मिली भी थी , पढ़ते पढ़ते गुलज़ार साहब की वो शेर याद आ गई
" किताबों पर धूल जमने से कहानी बदल नहीं जाती "
कहनी मेरी भी वही है धूल जम गई है
स्थिर हो गई है
अधूरी है पर कहानी तो है।
रात हो गई है अब शायद
सो जाते है
उसे खव्बों में भी ढूंढना है ।
रवि आनंद
भारत में हम अभी ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ तब तक किसी भी चीज को सत्य नहीं मानी जायेगी जब तक आप उस चीज को सिद्ध ना कर दें । चाहे वो बात राष्...