नाव के माफ़िक आँखो की दोनो पुतलियां नोर से तैर रही हैं
वो पुकार रही है चिल्ला रही है खामोशी से
वो जो बोल रही है बस वो सुन रही है और उसकी खामोशी उसे सुन रही है ।
चलने की तो वो कोशिश तो कर रही है पर उसके बिना उसका कोई सफ़र मुकम्मल नहीं है चल तो रही है पर वो उसके बिना पहुंच नहीं रही है ।
भूलने की कोशिश में वो उसे बहुत करीब पा रही है , भूलने की कोशिश तो वो बहुत खूब कर रही है पर कामयाबी उसे मिल नहीं रही है ।
नफ़रत की गुंजाइश शायद वो शख्श ने कुछ छोड़ा नहीं है , लगता है
चाह कर भी कोई कैसे नफ़रत करे कोई किसे ?
इश्क़ क़ामिल हो तो बदन का एक होना जरूरी नहीं है , वो अपने आप से ये केह रही है दिल को बहला रही है।
रवि आनंद
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